मुनव्वर फ़ारूक़ी के साथ खड़े होना कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधरों का कर्तव्य है

नई दिल्लीः भारतीय श्रुति परंपरा कहती है, कविर्मनीषी परिभू स्वयम्भू. यानी कवि मनीषी तो होता ही है, अपनी अनुभूति के क्षेत्र में सब कुछ समेटने में सक्षम होता है और उसके लिए किसी का ऋणी नहीं होता.

‘शब्दकल्पद्रुम’ में तो कवि की परिभाषा देते हुए यहां तक कहा गया है कि ‘कवये सर्वजानाति सर्ववर्णयतीति कविः’ अर्थात कवि वह है, जो सब जानता हो और सारे विषयों का वर्णन कर सकता हो. साफ है कि उससे नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से संपन्न होने की अपेक्षा की जाती है. अन्यथा वह ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ वाली कहावत को सार्थक कर ही नहीं सकता.

इसी कड़ी में आनंदवर्धन कहते हैं कि अपार काव्यसंसार में कवि ब्रह्मा है और उसे संसार में जो जैसा अच्छा लगता है, वैसा ही वह उसका निर्माण करता है.

देशांतर की बात करें तो एक कथा है कि एक समय एक शायर ने अपनी काव्य पंक्तियों में अपनी प्रेमिका की खूबसूरती या किसी अदा पर, ठीक से याद नहीं आ रहा, अपने देश के दो सूबे कुर्बान कर दिए तो कुछ विघ्नसंतोषियों ने बादशाह से उसकी शिकायत कर दी.

बादशाह भी कुथ कम न था. बिना कुछ सोचे समझे शायर को पकड़ मंगाया और घुड़ककर पूछा, ‘क्यों रे, तेरी यह मजाल कि तूने मेरे दो सूबे अपनी प्रेमिका के नाम कर दिए? किसकी इजाजत से किया ऐसा और कहां से पाई इसकी कूवत?’ तब उस शायर ने भी भरे दरबार वही सब बातें कहकर अपनी कूवत सिद्ध की, जो हमारे देश की श्रुति परंपरा में कही गई हैं. अंत में उसने कहा कि ‘काव्य-संसार इतना बड़ा है कि उसमें ऐसी कुर्बानियों के लिए किसी बादशाह की इजाजत की जरूरत ही नहीं पड़ती’ और दरबार से उठकर चला गया.

कवियों-शायरों की अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी ये बातें दुनिया के लोकतंत्र से रोशन होने से बहुत पहले की हैं और कही भले ही उनके संदर्भ में गई हैं, वह भी शायद इसलिए कि तब तक मनुष्य की मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कविता कहें या शायरी ही सबसे सुलभ साधन थी, लेकिन इनमें कहीं भी दूसरे कलाकारों को कवियों-शायरों से अलगकर उनकी जैसी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया गया है.

यह और बात है कि दुनिया में कभी भी ऐसी सत्ताओं व व्यवस्थाओं की कमी नहीं रही, जो कवियों व कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त सत्य से खतरा महसूस कर उनका मुंह या सांसें बंद कराने में अपनी सारी शक्ति लगा देती रही हों.

ऐसी नजीरों से इतिहास भरा पड़ा है, जो सिद्ध करती हैं कि राजनीतिक सत्ताएं हों या धार्मिक, गाहे-बगाहे वे उन्हें अपने अर्दब में लेने, सबक सिखाने और अपना मोहताज बनाने की कोशिशें करती ही रही हैं. बदले में उनके द्वारा दिया जाता रहा राज्याश्रय भी उनकी इन कोशिशों से अलग नहीं सिद्ध होता रहा है.

बहुचर्चित स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी इस साल के आरंभ से ही जो कुछ झेल रहे हैं और जिसकी अति हो जाने के बाद उन्होंने बेहद निराश होकर ‘नफरत जीत गई, कलाकार हार गया, मैं थक गया, अलविदा’ कहते हुए कॉमेडी कर्म छोड़ देने का फैसला लेने का संकेत दिया है, उसे कलाकारों का मुंह बंद कराने की कोशिशों की इसी कड़ी में देखा जा सकता है.

Donate to JJP News
जेजेपी न्यूज़ को आपकी ज़रूरत है ,हम एक गैर-लाभकारी संगठन हैं,इसे जारी रखने के लिए जितना हो सके सहयोग करें.

Donate Now

अब हमारी ख़बरें पढ़ें यहाँ भी
loading...