बहसोत्पादन। 2014 से मोदी सरकार ने एक तरीक़ा अपनाया है। वह समय-समय पर थीम एंड थ्योरी लाँच करती रहती है। उसके लाँच करते ही अख़बार के संपादकीय पन्ने समर्थक करने वाले विचारों से भर जाते हैं। इसकी आंधी इतनी तेज़ चलती है कि दूसरे मुद्दों और सवालों के लिए जगह नहीं रह जाती।आप देखेंगे कि एक बहस के बाद दूसरी बहस आती है। इस तरह समाज बहसोत्पादन में लग जाता है। उनकी बहसों में ही धारणा बनती रहती है कि कुछ हो रहा है, कुछ होने वाला है। आठ साल का रिज़ल्ट क्या है, सभी देख रहे हैं।
बहसोत्पादन का एक हिस्सा है, मंत्रियों और पार्टी के नेताओं का भी लेख लिखना। इन लेखों में नई बातें नहीं होती हैं। एक ही थीम के आस-पास जागृति और प्रेरणा जैसी बातें लिखी होती हैं। दसवीं कक्षा की वाद-विवाद प्रतियोगिता वाली जज़्बाती बातें होती हैं। जैसे झंडा अतीत, वर्तमान और भविष्य का प्रतीक है। ऐसी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं मगर इनमें कुछ नहीं होता। उन्हें पढ़ कर ही लगता है कि किसी और ने लिखा है। इसकी जगह अगर वे तिरंगा झंडा की यात्रा पर सदन झा की किताब पढ़ लिए होते तो उनके लेख पढ़ने लायक़ हो जाते। छापने का औचित्य भी होता।
अगर वे मंत्री न होते और गोदी मीडिया का दौर न होता तो उनके लेख को सब एडिटर ही उठाकर कूड़ेदान में डाल देता मगर बहसोत्पादन के लिए छापा जाता है। आप एक काम कर सकते हैं। तिरंगा यात्रा पर केंद्रीय मंत्रियों सहित तमाम लेखों को जमा कीजिए। फिर उनका अध्ययन कीजिए। रेवड़ी की बहस से कुछ और नहीं, सही बात का आधार बनाकर कुछ बड़ा ग़लत होने जा रहा है। विपक्ष की राजनीति को कंट्रोल करने का नैरेटिव तैयार हो रही है। वरना बीजेपी बहस नहीं करती, अपनी रेवड़ियों को बंद कर देती।
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