जनता ही मूर्ख है जो किसी राजनैतिक पार्टी को देशभक्त समझ बैठती है और किसी को देशद्रोही

आप किसी कंपनी में काम कर रहे हैं और आपको उस कंपनी की प्रतिद्वंदी कंपनी से अच्छी सेलेरी का ऑफर आता है । तो क्या आप नहीं जाना चाहेंगे उस कंपनी में ?

आप किसी ऐसे मजहब में हैं, जिसमें आपके ही मजहब के दबंग आप पर अत्याचार करते हैं । उस मजहब का ईश्वर भी आपकी कोई सहायता नहीं करता । एक दिन कोई आकर आपको बताता है कि हमारे मजहब में तो सभी बराबर के माने जाते हैं । कोई किसी को छोटा या बड़ा नहीं मानता, कोई अमीर और गरीब नहीं होता, कोई ऊंच नहीं होता…..सभी एक ही रंग और एक ही तरह की गाड़ी में घूमते हैं । सभी एक ही तरह का खाते हैं, एक ही तरह का ऐश करते हैं । और फिर कितने भी पाप करो, बस संडे के संडे जाकर माफी मांग लो, ईश्वर सारे गुनाह माफ कर देता है ।

तो क्या आप उसके मजहब में नहीं जाना चाहेंगे ?

आपने कई बड़े बड़े घोटाले किए हैं, कई लोगों की भूमि हथियाई है और भी कई बड़े बड़े अपराध किए हैं, जिनके कारण पुलिस आपके पीछे पड़ी है, सीबीआई आपके पीछे पड़ी है और अदालत भी तारीख देते देते थक गया है । ऐसे मे कोई आकार कहे कि हमारे पार्टी में आ जाओ, खुदा की तरह यहाँ भी सारे गुनाह माफ हो जाते हैं । पुलिस, सीबीआई और अदालत को अपनी जेब में रखा जाता है, वे चूँ तक नहीं कर सकते ।

तो क्या आप नहीं जाना चाहेंगे ऐसी पार्टी में ?

तो फिर क्यों बुरा लगता है आपको जब कोई नेता एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाता है ?

राजनैतिक पार्टियाँ वास्तव में एक कंपनी ही होती है । और इसके सदस्य बिलकुल कंपनी स्टाफ की तरह ही होते हैं । और हर किसी को यह स्वतन्त्रता है कि वह जब चाहे कंपनी बदल ले अपनी सुविधानुसार ।

बस जनता ही मूर्ख है जो किसी राजनैतिक पार्टी को देशभक्त समझ बैठती है और किसी को देशद्रोही । जबकि राजनैतिक पार्टियों का देशभक्ति से कोई लेना देना होता ही नहीं और न ही आधुनिक राजनेताओं का कोई संबंध होता है देश और देशभक्ति से । उन्हें तो केवल अपने धंधे से मतलब होता है और जो भी पार्टी उनकी रक्षा सीबीआई, पुलिस और अदालत से करने की ताकत रखती है, नेता उसी तरफ लुढ़क जाते हैं ।

आप भी इस भेदभाव से मुक्त हो जाइए । जैसे कोई मजहब बुरा नहीं होता केवल उस मजहब को मानने वाले बुरे हो सकते हैं, उसी प्रकार कोई राजनैतिक पार्टी अच्छी या बुरी नहीं होती, केवल उस पार्टी के सदस्य अच्छे या बुरे हो सकते हैं ।

हर किसी को अपना अपना स्वार्थ साधने का पूरा अधिकार है बिलकुल वैसे ही, जैसे आम जनता को अधिकार है । आम जनता भी वोट देते समय अपना स्वार्थ, अपनी जाति, रिश्तेदारी, दारू की बोतल या हज़ार-पाँच सौ का नोट देखकर ही वोट देना पसंद करती है ।

देशहित, देशभक्ति…..आदि सब वैसी ही किताबी स्लोगन हैं, जैसे ईमानदारी, सच्चाई, परोपकार, सहयोगिता आदि इत्यादि ।

~विशुद्ध चैतन्य के वॉल से

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