“There are no free lunches in economics”
जब भी आप अर्थशास्त्र की बात करेंगे तो मुफ़्त कुछ भी नहीं होगा।
19 जुलाई 1969. आज से लगभग 50 साल पहले इंदिरा गांधी सरकार ने अर्थशास्त्र की इस धारणा को पलटने की कोशिश की। 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके।उस समय ये 14 बैंक देश की 85% जमा पूंजी को संजोए बैठे थे। आज देश के 12 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 127 लाख करोड़ की पूंजी जमा है।अगले वित्त वर्ष में मोदी सरकार इन 12 सरकारी बैंकों में से 7 को निजी क्षेत्र के हवाले कर देगी।
ऐसा क्या हुआ कि इन बैंकों को बेचने की नौबत आ गई
क्यों? बीते 50 साल में ऐसा क्या हुआ कि इन बैंकों को बेचने की नौबत आ गई? यह भी बड़ा सवाल है कि ICICI और यस बैंक के मामलों को देखते हुए बैंकिंग क्षेत्र के विनिवेश में कितना बड़ा जोखिम है?भारत का बैंकिंग क्षेत्र 2017 से ही जोखिम में है। सरकारी बैंकों को डूबने से बचाने के लिए करीब 2 लाख 17 हज़ार करोड़ झोंके गए हैं। फिर भी बैंक 13 लाख करोड़ के NPA पर बैठे हैं। यानी 13 लाख करोड़ के लोन डूब चुके हैं।इसमें कोई दो राय नहीं कि ये नौबत बैंकों में लगातार बढ़े सरकारी हस्तक्षेप के कारण पैदा हुई। ऐसे में इस सवाल पर बहस हो सकती है कि मोदी सरकार 12 में से 7 बैंकों में अपना हिस्सा बेचकर क्या ग़लत कर रही है?’
सरकार के पास दर्जन भर बैंकों में झोंकने के लिए और पैसा नहीं है
दरअसल, सरकार के पास दर्जन भर बैंकों में झोंकने के लिए और पैसा नहीं है। खज़ाना खाली है। मोदी सरकार बीते 6 साल में सरकारी बैंकों का प्रबंधन, प्रशासन और कामकाज को निजी बैंकों के समकक्ष बनाने में नाकाम रही है।सियासत यहां भी है। पहले भी थी। लोन माफ़ी, अपने चहेतों को लोन बांटने, अपने लोगों को लोन देकर मालामाल करने और इस उपकार का बदला सियासी फायदों के रूप में लेने के तौर पर।कुछ बड़े कॉरपोरेट्स इस वक़्त देश को चला रहे हैं। सरकार उनके पेट से लोन वसूल नहीं कर सकती। सरकार उन अपनों के गिरेबां पर हाथ नहीं डाल सकती, जो मुद्रा लोन जैसी सरकारी योजनाओं को हजम करके फुर्र हो गए।
आपको यकीनन लोन माफ़ी जैसे सियासी फैसलों पर भी सवाल करना चाहिए। लेकिन इसे सामाजिक न्याय और जनकल्याण के नज़रिए से देखें तो इसे जस्टिफाई कर सकेंगे। लेकिन इसमें भी झोल है, क्योंकि सरकारी बैंकों का कुप्रबंधन और सत्ता का हस्तक्षेप इसमें भी अपनों को फायदा दिलाने वाला रहा है।बहरहाल, मोदी सरकार के अगले कदम से सब बदल जायेगा। निजी बैंक मुनाफा कमाने के लिए लोन देते हैं। साहूकारों की तरह।2008 में जब भारत में मंदी आई तो सरकारी बैंकों को ज़्यादा लोन देने को कहा गया, यानी ग्राहक की हैसियत से ज़्यादा। नतीजा- 2011 में देश की इकॉनमी 10% की रफ्तार से दौड़ रही थी।
NPA लोन का नतीज़ा है
लेकिन उसके बाद बैंकों ने जानबूझकर ऐसी कंपनियों को लोन दिए, जिनकी हैसियत चुकाने की नहीं थी। NPA उसी का नतीज़ा है।बैंकों का निजीकरण इस परिदृश्य को बदलेगा, लेकिन छोटे कारोबारियों, उद्योगों और उन कमज़ोर ग्राहकों को बैंकिंग सिस्टम से दूर कर देगा, जो सरकारी वित्त पोषण योजनाओं का लाभ लेना चाहते हैं।इसकी शुरुआत तभी हो चुकी थी, जब खर्चों में कमी का हवाला देते हुए सरकार ने बैंकों की शाखाएं कम करना शुरु किया और लोगों से डिजिटल पेमेंट को अपनाने के लिए कहा।
सरकार आहिस्ता से सभी क्षेत्रों से हाथ खींच रही है
अगर आप आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि इसमें किसी भी आर्थिक क्षेत्र में सरकार की हिस्सेदारी अधिकतम 4 कंपनियों तक सीमित की गई है। बाकी में निजीकरण तो होगा।यानी सरकार आहिस्ता से सभी क्षेत्रों से हाथ खींच रही है। इसका मतलब यह भी है कि देश का तकरीबन हर क्षेत्र निजी हाथों से संचालित होगा।
मतलब, देश मुनाफे के गणित पर चलेगा और इस मुनाफे को लोगों तक पहुंचाने का काम सरकार नहीं करेगी।इसका मतलब यह भी है कि भारत की 136 करोड़ जनता लोक कल्याणकारी राज्य के लोकतंत्र से बाहर फेंक दी गई है।
ये लेख सौमित्र रॉय के वॉल से साभार लिया गया है
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